हमने देखा एक शहर
जिसके चारो और भंवर
लोगों के, दुकानों के
बाज़ारों के, खरीदारों के
पीछे छूट जाते जिनके
मंडराते सुनसान से घर
हमने देखा एक शहर
बदहवास लोग घायल थे
दर्द छिपाने में माहिर थे
सिरहाने सपने छोड़ के उठते
लुटते लूटते गिर कर हँसते
किसे पड़ी है कौन बताता
अंधेरों की ठोकरें ठिकर
हमने जिया एक शहर
न सपने परियों के लायक थे
न जीवन सपनो के कायल थे
खेल खेल में टूटते बनते
वो रिश्तों के महिम धागे थे
देहरी पर गुमसुम बैठा रहता
सर झुका के प्रेम का ढाई आखर
हुमने ढोया एक शहर
जिसके चारो और भंवर
हमने देखा एक शहर ...........